ग्रीष्म
ऋतु और स्वास्थ्य
प्रकृति की वास्तविक लीला-स्थली यदि कोई
है तो भारत ही । ग्रीष्म ऋतु जैसा कि नाम से ही
प्रगट है तीव्र ग्रीष्म और भयंकर विशूचिका आदि रोगोंकी जनयित्री है । लू का मौसम सुश्रुत
में दोष-क्रम से इस ऋतु को वैशाख और ज्येष्ठ मास जे माना गया है । हस ऋतु का आरंभ
वैशाख मास से होता है, सूर्य की तेज किरणें
पृथ्वी और वायुकौ तप्त कर देती हैं । जगत् का तरल भाग शुष्क हो जाता है, शरीर शुष्क और दूषित हो जाता है । क्षुधा कम लगती है, आलस्य रहता है । स्वास्थ्य के लिए यह काल निकृष्ट है ।
इसकी तीव्रता के विषय में लिखा है-मयूखैर्जगतः सार॑ ग्रीष्मेथे पीतयेरिव ।
इस स्थिति में जो व्यक्ति ऋतुचर्या का पालन नहीं करते उनका शरीर रोगागार ही नहीं
बनता अपितु वे धर्म, अर्थ, कौम मोक्ष जो मानव जीवन के साधन हैं, उनसे भी वंचित रहते हैं । लोग अधिकाधिक शीतल-शांत
वातावारण में रहना चाहते हैं । कोलाहल समाप्त प्रायःही होता है । तपावन की-सी
शांति संसार में व्याप्त रहती है । बिहारी जी इसविषय में लिखते हैं-कहलाने एकत
बसत अहि, मयूर, अरु बाघ।जगत तपोवन सो कियो दीरघदाघ निदाघ ।
ग्रीष्म
काल में किस प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ?
इस
ऋतु में जगत् का तरल और स्नेहांश रुक्ष और शुष्क हो जाता हैं.क्योंकि इससे पूर्व
की ऋतु वसंत कफ की ऋतु थी, यदि उस समय का कफ का वमन
न किया जाए तो ग्रीष्म में कफजन्य रोग और अधिक उपद्रवों तथा भीषणता के साथ उत्पन्न
होते हैं । जैसा कि सभी जानते हैं, पित्त की गति ऊपर की
ओर होती है, इसमें यदि वात का संयोग हो जाए तो गति
में शक्ति आ जाती है और यही कारण है कि ग्रीष्म काल में मानसिक
रोग अधिक होते हैं । शरीर और मन पर ग्रीष्म के प्राबल्य से उदासी छाई रहती है ।
ग्रीष्म
काल में क्या खाएँ और क्या पीएँ ?
ग्रीष्म ऋतु की परिचर्या का वर्णन करते
हुए वागभटकार-अष्टांगहदय सूत्र अध्याय 3 में लिखते हैं-
तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुग्रीश्मि
संक्षिपतीव यतू।प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्व वर्धते ॥
अर्थात् ग्रीष्म में तीव्र किरणों वाला
सूर्य संसार के स्नेह को नष्ट करता रहता है--इससे मनुष्यों की श्लेष्मा घटती जाती
है और वायु बढ़ती जाती है । इस ऋतु में नमकीन, कटु और अम्ल रस
व्यायाम और सूर्य की किरणों ।(धूप सेवन) का परित्याग कर दें । कटु-अम्ल, और नमकीन द्रव्यों का
यथासंभव परित्याग कर मधुर, हल्के, चिकने, ठंडे और पतले (शरबत)
आदि पदार्थों का सेवन करें। शीतल जल.से स्नान करें । चीनी मिला कर सत्तू पीएँ
(चाटें) । चीनी डाल कर भैंस का दूध तथा सुगंधित-शीतल शर्बत पीएँ । गुरु, रूक्ष-बासी भोजन का परित्याग कर देना चाहिए । भूख से
कम खाना, व्यायाम और धूप से यथासंभव दूर रहना (कम करना) लाभप्रद
है । कुछ व्यक्ति तक (छाछ) लेते हैं पर यह ठीक नहीं क्योंकि मन्थ (तक्र) का निषेध निम्न शब्दों में किया गया है-“नोष्ण
कालेन दुर्बले” अतः इसके स्थान पर सत्तू ही लेना चाहिए क्योंकि लिखा
है-'शीतवारि गोलित घृतस्याक्ताःनाति स्वच्छा नाति
सान्द्राः सक्तवो मन्थः”। इस ऋतु में शीतवारि और सत्तू के प्रयोग पर खूब बल
दिया गया है।
गर्मी
के मौसम में क्या क्या खाना चाहिए ?
ग्रीष्म ऋतु में कुंद पुष्प (मोतिया) और
चन्द्र के समान श्वेत-सुगंधित चावल उत्तम यूष (और जंगली जीवों के मांस रस का सेवन
करें) पतलेरस, शर्बत, श्री खण्ड, राग (अनार आदि के खटाई युक्त शर्बत) खाण्डव (मधुराम्ललवण
रस युक्त द्रव्य) या मधुराम्ल लवण कटुकाद्य मिश्रित लेह (चटनी) पानक (खजूर, फालसा आदि का शर्बत)
नए मिट्टी के पात्र में रखकर पान करें याकेला और हरा नारियल या कटहल के टुकड़े
अनार की खठाई में डाल मिट्टी के सिकोरे में रखकर पीवे । यहाँ मोच का अर्थ केला और
चोच का कटहल किया है पर हेमाद्रि चोच का अर्थ नारियल लेते हैं।
गर्मी
के मौसम में क्या पीना चाहिए ?
ग्रीष्म में कूप या झरने का शीतल जल पीने
के लिए उत्तम माना गया है क्योंकि कूप जल चर्बी को नाश करने वाला दीपन और हल्का
होता है और झरने का जल हृदय को रुचिकर, कफनाशक, हल्का, दीपन और अच्छा होता
हैं । ग्रीष्मक्रतु में पाटला के फूलों से सुगंधित कर कर्पूर से सुगंधित करशीतल जल
पीवें (इस प्रकार का जल पीने से विशूचिका आदि रोगों से बचाव होकर जठराग्नि ठीक
रहती है ।) रात्रि के समय कर्पूर, नाड़िका अथवा
कपूरमिश्रितशीतल किया हुआ मिश्री जल के विषय में निम्न बातें ध्यान रखने योग्य हैं
और वह हैं जल को शीतल करने की विधि “सप्तशीति कारणानि भवन्ति तद्यथा” सुंदर
भोजन करते समय चंद्रमा और तारों की छाया में मिला भैंस का दूध पीना चाहिए ।
ग्रीष्म
काल में कब और कैसे सोना चाहिए ?
इस क्रतु में प्रायः शारीरिक एवं दिन का
तापमान बढ़ने से नींद नहीं आती,रात करवट बदलते बीतती है जिससे कोष्ठ
बद्धतां, अजीर्ण आदि की संभावना रहती है, अतः शीतल वातावरण में सोने की व्यवस्था करें ।
क्योंकि इस ऋतु में रातें छोटी होती हैं इसलिए दिन में सोने का निषेध नहीं किया
गया है । दिन में सोना कैसे स्थान में चाहिए इस विषय में वाग्भटकार का मत है--“जिस
स्थान में विशाल ताल वृक्षों की छाया सूर्य रश्मियों का प्रतिरोध करती हों ।
वृक्षों पर माधवलता या अंगूरयुक्त अंगूर की बेल चढ़ी हुई हो, खस की मधुरगंध हों, शयन स्थान में आम के
कोमल पत्ते बिछे हों, मोर आदि विचरण करते
हों वहाँ केले के फ्ते नील-शवेत कमलों या अन्य विकसित पुष्पों और कोमल पत्तों से
बनाई हुई शैय्या पर शयन करें या जल के फुहारों वाले धारा गृह में--सूर्य की गर्मी
से मुक्त हो शयन करें।
रात्रि के समय ऊँचे महल की छत पर जहाँ
निर्बाध चन्द्र की शीतल किरणें पड़ती हों तथा जल खस से सुगंधित हों, ऐसे स्थानों में सोने बैठने का प्रबंध करना चाहिए।
भली प्रकार नींद आने के लिए सुखदायी नर्म स्वच्छ शैय्या की व्यवस्था होनी चाहिए । प्रीष्म ऋतु में रागादि दोष से
रहित, स्वस्थ चित्त वाले, चन्दनादि से लिप्त शरीर
वाले, पुष्पहार पहने हुए, काम केलि से निवृत्त, सूक्ष्म रेशमी वस्त्र पहने हुए पक्ष के जल से भिगोए
हुए ताड़ पन्नों या जलसिक्त कमल पत्रों से की हुई वायुशरीष्म जनित कलम को दूर कर
देती है ।
ग्रीष्म
ऋतु में किन वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए
?
वात पित्त को कुपित करने वाला आहार-विहार छोड़
दें, व्यायाम भी कम करें । अच्छा होगा यदि व्यायाम के
स्थान पर प्रातः भ्रमण किया जाए । शराब इस ऋतु में बिल्कुल नहीं पीनी चाहिए, यदि पीने की आदत हो तो कम मात्रा में मद्यपान करें या
अधिक जल मिलाकर पीयें-“मद्य न पेयं पेयं वा
स्वल्पं सुबहुवारिणा । अन्यथा शोष शैथल्य दाह मोहानू करोति तत् ॥-वाग्भटसादा, सात्विक आहार-विहार करें । मौसमी (ऋतु) फलों में
खरबूजा, ककड़ी आदि का सेवन करें ।
ग्रीष्म
ऋतु में क्या पहनें ?
इस ऋतु में स्वच्छ और श्वेत रंग के वस्त्र
पहनें क्योंकि सफेदरंग सूर्य रश्मियों को आत्मसात् न कर परिवर्तित कर देता है।
खादी या अन्य मोटा वस्त्र जिसमें वायु का प्रवेश न हो सके और जो स्वेद शोषक और
शीतल रखे उत्तम है । साथ ही इस ऋतु में जूते और छाते का प्रयोग करना न भूलें ।
इनके प्रयोग से शारीरिक और मानिसक उष्णता नहीं बढ़ती । इसे ऋतु में नंगे सिर, पाँव चलने से,शीतल जल कम पीने से लू
(अंशुघात) का प्रायः भय रहता है। इमली, आम का पानक, पोदीना, प्याज लाभदायक हैं। इस
ऋतु में मैथुन से सर्वथा दूर रहना चाहिए क्योंकि-ग्रीष्मकाले निषेयेत मैथुनादिरतोनरःकारण
स्पष्ट है-मैथुन से शरीर में वायु कुपित होगा, क्षीणता आएगी और वह भी
उस स्थिति में जब कि इस समय स्वाभाविक क्षीणता होती है। ऊष्मा बढ़नेसे उन्माद आदि
रोग न भी तो भी रोग क्षमता तो घटेगी ही अतः मैथुन से दूर ही रहें ।
गर्मी के मौसम में दिनचर्या
ग्रीष्मऋतु में प्रातः 4 बजे उठ कर शौचादि से निपट भ्रमण-स्नानके समय तैरना, अल्प सात्विक आहार करना, 8 तक अध्ययनादि 2-3 तक के मध्याह्न विश्राम, उठकर शर्बत, ठण्ठाई, ऋतु फल का सेवन कर भ्रमणादि से 9 तक निवृत्त हो, 0 बजे तक शयन करना चाहिए
। ठण्डाई का निम्न प्रयोग कर सकते हैं-गुलनीलोफर, खरबूजा-बीज, मगजकदूदू, सौंफ, काली मिर्च, चन्दनचूरा, बादाम, इलायची-बीज, ककड़ी, बीज-खीरा, पोस्त, खस, ब्राह्मी, मुनक्का, गुलाब के फूल आदि । सब सम भाग व्यक्ति के लिए । तोला
पर्याप्त है-यह हृदय के लिए अच्छा तृषाशामक, ऊष्णता नाशक, नेत्रों के लिए तथा मस्तिष्क के लिए लाभप्रद है। बेल,ब्राह्मी या शहतूत-शर्बत भी अच्छा है। चावल या चने का
सत्तू भी लें। संक्षेप में – ग्रीष्म ऋतु में कटुता होने के कारण पित्त की वृद्धि
होती है और स्निग्धता नष्ट हो जाती है। अन्नादि खाद्य पदार्थ भी इस समय निस्सार और
हल्के होते हैं। यही कारण है कि दुर्बल व्यक्तियों में वायु का संचय होता है और
वर्षा ऋतु होते ही वह "प्रबल हो जाता है। अतः ग्रीष्म ऋतु में आहार-विहार पर
विशेष ध्यान देना चाहिए।
ग्रीष्म
ऋतु कब से कब तक रहती है ?
पहले बताया जा चुका है कि ग्रीष्म मई और
जून में रहती है। इस समय यथासंभव बाहर न निकलें यदि जाना पड़े तो जल से प्यास बुझा, छाता लेकर जाएँ । इस ऋतु में नमकीन और मीठे, हल्के और शीतल तथा पतले पदार्थों का सेवन भी अच्छा है
। दूध या दही की लस्सी किसी के मत में ठण्डाई , शीतल जल में, घुला हुआ जौ का, गुलाब, चंदन, ब्राह्मी, बेल आदि का शर्बत पीना
अच्छा है।
ग्रीष्म
काल में कितना भोजन करें ?
भौजन इस ऋतु में कम करें । भोजन में जौ, ज्वार, गेहूँ, चावल, अरहर, मसूर, बधुआ, चौलाई, परवल, घीया, तुरई आदि का व्यवहार
करें । खीरा, ककड़ी का सेवन अच्छा है पर खाली पेट
इन्हें न खाएँ क्योंकि इससे हैजा आदिहोगे का भय बना रहता है। इस समय प्याज, हरा पोदीना, इलायची, आँवले का प्रयोग लाभप्रद है। खस, कपूर, चंदन आदि से सुगंधित
किया जल पीना, शराब न पीना या अधिक जल मिला कर पीना
अच्छा है । साथ में. ब्लाशी, आँवला भूंगराज तेलों की मातिश लाभप्रद है । हैजा, पेट फूलना, भूख नष्ट हो जाना आदि
से बचाव के लिए अर्क पोदीना या अर्क कपूरक्षा प्रयोग या प्रयोग भी प्रशस्त है । निरोग व्यक्तियों पर
ही राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल रहता है अतः हमारा कर्तव्य है कि आर्ष प्रणीत
ऋतुचर्या विधि का पालन कर अपने-आपको कार्य के लिये सक्षम बनायें ।