बारिश में आयुर्वेद की ऋतुचर्या का महत्व
वर्षा ऋतु का स्थान ऋतुचर्या में तीसरा
माना गया है। यह ऋतु अषाढ, श्रावण (जुलाई, अगस्त) में रहती है। जहाँ यह ऋतु अन्नोत्पादन में
सहायक मानव के प्राणरक्षक रूप में
सामने आती है वहाँ अनेक वातविकारों को उत्पन कर मानव को बहुत कष्ट भी देती है। वर्षा के विषय
में लिखा है, “वर्षासु मातोदुष्ट:” हो सकता है-वर्षा ऋतु का कीचड़, गंदगी, मच्छर आदि कई
व्यक्तियों के प्रिय न लगें, पर यदि वे
हिंदी-संस्कृत साहित्य का अनुशीलन करें तो उनका मन मयूर वर्षा
की मेघ ध्वनि सुन नृत्य किए बिना न रह सकेगा । हल्की-हल्की फुहारों वा आनंद लेनेके
लिए किसका मन लालायित न होगा । मल्हार की मधुर ध्वनि
किस पाषाण हृदयको द्रवित करने में समर्थ न होती होगी ? महाकवि कालिदास के 'मेघदूत' का प्रेरणास्नोत यही ऋतु तो है ।
वर्षा ऋतु
में हमें किस प्रकार रहना चाहिए ?
इस विषय में वाग्भटाचार्य जी लिखते हैं- वर्षा
ऋतु में आदान काल होने से अपरिचित धातु वाले शरीर में अग्नि मंद होकर नष्ट हो जाती
है । इन दिनों जब आकाश जल पूर्ण वारिधरों से घिरा हुआ होता है, तब वह अग्नि वातादि दोष से दूषित होती है । इस
मेघपूर्ण वायु-मंडल में वे वातादि दोष तुषारयुक्त शीतल पवन चलने से, तथा पृथ्वी की दोष युक्त वाष्प से और काल स्वभावज
अम्ल पाक वाले एवं कीट आदि युक्त मलिन जल से मन्दाग्नि के समान
ही वातादि दोष भी अधिक दुष्ट हो जाते हैं ।
वर्षा
ऋतु में आहार विहार
यद्यपि वर्षाकाल में वात का ही प्रकोप
होता है, परंतु जल के अम्ल पाक से पित्त का भी वृद्धि जनित कोप
होता है, और कफ का क्षयज प्रकोप होता है। इसी बात को लक्ष्य
करके 'चरक' ने लिखा है-वर्षा
स्वग्निबले हीने कृप्यन्तिपवनादयः अर्थात् वर्षा काल में अग्नि का बल हीन
होने पर वात, पित्त, कफ तीनों दोष कुपित हो
जाते हैं । उन वातादि दोषों के परस्पर दूषित होने पर वर्षा ऋतु में सब साधारण और
जठराग्नि को तेज रखने वाले आहार-विहार का सहारा लेना चाहिए ।
वर्षा
ऋतु में स्वास्थ्य रक्षा
पुराना अन्न, जंगली पशुओं का मांस, मूंगादि के यूष, पुराना मधु, पुराने अरिष्ट, सौवर्चल (साँचर) नमक, पंचकोल (पिप्पली, पिप्पलीमूल, चव्ये, चित्रक, सोंठ) युक्त वस्तुएँ खाएँ । मम्तु (दही का जल)
आकाशयीय जल या कूप का उबाल कर ठंडा किया हुआ जल सेवन करें । जिस दिन अति मेघवृष्टि
हो उस दिन दाड़िम (अनार) आदि अम्ल रस युक्त, नमकीन और चिकने सूखे
पदार्थ और मधुयुक्त पदार्थ तथा हल्के पदार्थ सेवन करें । यद्यपि मधु रूक्ष होने से
वात प्रकोप करता है, परंतु इस समय क्योंकि
देह की धातुएँ क्लेद युक्त होती हैं, इसलिए मधु को शक्ति
क्योंकि इस क्लेद के शोषण में लग जाती हैं इसलिए वात-प्रकोप का भय नहीं रहता । इसीकारण
वर्षा में मधु का निषेध नहीं है ।
वर्षा
ऋतु में कैसे बचें वात रोगों से ?
इसके अतिरिक्त निम्न बातों को भीपूर्णतया
ध्यान में रखना चाहिए । इस ऋतु में सुगंध लगाकर और सुगंधित धूप से वस्त्रों को
धूपित कर पहनना चाहिए । बिना सवारी या नंगे पाँव नहीं फिरना चाहिएं। कीच-कीट, काँटे आदि का भय बना रहता है । साथ ही इस समय पक्के
मकानों में ऊपर के ऐसे स्थान में निवास करना चाहिए, जिससे पृथ्वी की भाप, शीत और वर्षा की फुहार आदि न लग सके । वर्षा ऋतु में
नदी का जल, जल में बनाया हुआ सत्तू आदि का घोल, दिन में सोना, व्यायाम आदि करना, परिश्रम करना, सूर्य की धूप सहना इन
सबका परित्याग कर देना चाहिए । इसको संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि
वर्षा में प्रायः पैदल बाहर न निकलें । कपड़ों को बराबर धूप दिखाते रहें । मकान की
छत पर बैठें जहाँ मौसमी वायु और जल के छीटें न आते हों । नदी का जल, पानी में घोला हुआ सत्तू, दिन में सोना और धूप का सेवन कदापि न
करें । जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि इस ऋतु में वायु का प्रकोप अधिक होता है ।
अतः वायु-शामक उपाय प्रयोग में लाने चाहिएँ । वायु शामक सूखे, हल्के, गर्म, घी-तेल की अधिकता वाले नमकीन तथा खट्टे पदार्थों का
सेवन इस ऋतु में लाभप्रद है ।
बारिश के मौसम में क्या नहीं खाना चाहिये
?
पत्ती के साग, बथुआ, पालक, चौलाई आदि इस ऋतु में नहीं खाने चाहिए । इस ऋतु में
नदी या तालाब का जल नहीं पीना चाहिए, न उनमें स्नान करना चाहिए
। इस समय क्योंकि नदियाँ रजस्वला होती हैं अतः इनका जल किसी कामका नहीं रहता ।
कुएँ का जल भी यथासंभव यदि औदाकर पीया जाए तो अच्छा है । पीने के लिए 'दिव्य' जल (दिवि-आकाशेभवः
दिव्यः) अर्थात् वर्षा का वह जल जो पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ऊपर ही ऊपर ले लिया
जाए अच्छा है । यही जल दिव्य जल कहलाता है । इस ऋतु में आम और दूध का सेवन करना
अत्युत्तम है । इस क्रिया को “आम्र कल्प” कहते हैं। यह मन्दाग्नि और संग्रहणी वालों
को भी हजम हो जाता है तथा उपरोक्त रोगों का शमन कर शरीर पुष्ट बनाता है । सेवनीय
आम गूदे वाले (कलमी) की अपेक्षा रसदार अधिक श्रेष्ठ
माने गए हैं ।
वर्षा
ऋतु : स्वास्थ्य और सावधानियां
भाद्रपद या अगस्त वर्षा ऋतु का प्रधान
माह है। इस समय खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिए । भारी और बासी चीजें बिल्कुल
नहीं खानी चाहिए । यथासंभव सायंकाल का भोजन सूर्यास्त से पूर्व कर लेना चाहिए, इससे भोजन में जीवाणु का भय नहीं रहता ।
इन दिनों दही का प्रयोग सर्वथा नहीं करना
चाहिए क्योंकि कहावत प्रसिद्ध है- “सावन साय न भादों दहीं । क्वार करेलो न कातिक मही ॥” इस ऋतु में कीचड़, पानी और सील से सदा बचाव रखना चाहिए क्योंकि वात और
चर्म रोग प्रायः इन कारणों से ही होते हैं।
वर्षा ऋतु
में होने वाले रोग और उनसे बचाव
धूप से भी बचाव रखें परंतु वस्त्रों को बराबर धूप दिखाते रहना चाहिए
जिससे रोग जीवाणुओं से तथा वस्त्रमें कीड़ा लगने से बचाव रहे। सोने का स्थान खुला-हवादार
तथा वर्षा की फुहार आदि. उपद्रवों से बचा हुआ होना चाहिए । प्रायः मलेरिया भी इसी
ऋतु में होता है अतः इससे बचाव रखें । घरों के पास गढे आदि न रहने दें । मोरियां
आदि साफ रखें । पानी जमा न होने दें । गढों में मिट्टी का तेल डाल आग लगा दें । घर
में धूप-लोबान, गुग्गुल नीम के पत्तों की धूप यदा-कदा
देतेरहें जिससे मलेरिया के मच्छर उत्पन्न ही न हो पाएँ । योगराज गुग्गुल, चतुर्मुख रस, वृहतृध्वातचिंतामणि रस, योगेन्द्र रस, त्रिभुवनकीर्ति रस आदि का सेवन, नारायण तेल की मालिश, वातविकार, मलेरिया तथा जल दोष से
उत्पन्न रोगों केलिए लाभदायक है ।
चर्या-मंजरी में वर्षा ऋतुचर्या का बड़ा
आकर्षक वर्णन उपलब्ध होता है । इस प्रकार आयुर्वेद
वर्णित वर्षानुचर्या का पालन करने वाला व्यक्ति अनेक रोगों से ही नहीं अपने आप को
बचाता अपितु अपने धन की हानि को भी रोक लेता है । प्रत्येक बुद्धिमान प्राणी का
कर्तव्य है कि वह स्वास्थ्य के प्रति सतत सचेष्ट रहकर, अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो भारतीय जनता का तो यह
आवश्यक और अनिवार्य कर्तव्य है कि वह अपने देश निर्धनता को परिलक्षित कर विदेशों में
औषधि के बहाने जाते हुए धन को रोकने के लिए इन स्वर्णिम स्वास्थ्यसूत्रों को जीवन
में ढाल अपने स्वास्थ्य की रक्षा कर देश गौरव की वृद्धि करते हुए वही करे जो
आयुर्वेद ने बताया है ।