आयुर्वेदीय ऋतुचर्या उसका महत्व और स्वास्थ्य

वेदों में “शतम जीवेम शरदः” कहकर मानव की आयु का ही निर्देश नहीं किया गया अपितु मानव को यह उपदेश दिया गया है कि अपनी पूर्ण आयु काएप्रभोग करने के लिए आयुर्वेद के सभी नियमों को जीवन में ढालना आवश्यक है।

ऋतुओं के अनुसार आयुर्वेद का प्रयोग

ऋतुओं के अनुसार आयुर्वेद का प्रयोग :

हमारे महर्षियों ने मानव को भूलों का आगार समझते हुए ऋतुचर्या-दिनचर्या आदि की व्यवस्था की है। काल का विभाजन संवत्सर में करने के बाद ऋतुचर्या के दो भाग सूर्य की गति के आधार पर किए गए हैं। इनमें पहला है विसर्गकाल (दक्षिणायन) यह सौम्य और स्वास्थ्य अभिवृद्धि के लिए अनुपम है। दूसरा आदानक्राल या उत्तरायण है जो स्वास्थ्य के लिए निकृष्ट है ।

दक्षिणायन और उत्तरायन का स्वास्थ्य पर प्रभाव :

माघ आदि दो-दो माह को पृथक्‌ करने से 6 ऋतुएँ मानी गई है । जैसे-माघ-फाल्गुन शिशिर, चैत्र-बैशाख, वसंत, ज्येष्ठ-आषाढ़ ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपदवर्षा, आश्विन-कार्तिक-शरद, मार्गशीर्ष और पौष-हेमन्त, इस प्रकार 2-2 मास की- ऋतु होती है। शिशिर, वसंत और ग्रीष्म ऋतु में सूर्य उत्तरायण होता है। यह 6 मास का समय आदान काल कहा जाता है। इस नाम करण का कारण यह हैकि इस काल में भगवान्‌ सूर्य प्रतिदिन पृथ्वी से स्नेह भाग का आकर्षण करते हैं। क्योंकि इस समय में सूर्य और वायु अपनी गति के स्वभाव से अर्थात्‌ सूर्य की गतिउत्तर की ओर होने से प्रतिदिन सूर्य की किरणें तीक्ष्ण होती जाती हैं । अतः सूर्य और वायु अत्यंत तीक्ष्ण, उष्ण और रुक्ष होने से पृथ्वी के स्निग्ध, गुरु आदि सौम्यगुणों का नाश कर देते हैं। इसी कारण उत्तरायण में तिक्त कटु और कषाय ये तीनरस क्रमानुसार बलवान हो जाते हैं तथा मधुराम्ल लवण ये तीन रस क्षीण हो जातेहैं, अतः इस आदान काल को अग्नि गुण भूयिष्ठ होने से आग्नेय कहा गया है।

दक्षिणायन किसे कहते हैं ?

वर्षा, शरद और हेमन्त इन तीनों ऋतुओं को दक्षिणायन कहते हैं क्योंकि इन 6 महीनों में सूर्य की गति दक्षिण की ओर से होने से सूर्य का बल क्रमशः क्षीणहो जाता है और सोम का बल क्रम से बढ़ता जाता. है और सौम्य गुणों की वृद्धिहोती जाती है, एवं मेघ, वर्षा और शीतल वायु से पृथ्वी का ताप शांत हो जाताहै। इस समय स्निग्ध मधुर और लवण ये त्तीन रस क्रमशः बलवानू हो जाते हैं। भाव यह है-जेसे आदान काल में शिशिर ऋतु तिक्त, वसंत में कषाय और ग्रीष्ममें कटु रस वाले पदार्थ विशेष बलवाले होते हैं, उसी प्रकार वर्षा में अम्ल, शरद में लवण और हेमन्त में मधुर रस विशेष बलवान होते हैं। इसी प्रकार प्राणियों का.बल बढ़ता है-यह त्रिविध है।

शीतकाल अर्थात्‌ हेमन्‍त और शिशिर ऋतु में मधुररस और सौम्य गुण कीअधिकता होने के कारण प्राणियों में विशेष बल होता है तथा वर्षा और ग्रीष्म ऋतु |में सौम्य गुणों की कमी से मनुष्यों का बल अत्यंत क्षीण होता है एवं शरद और .वसंत ऋतुओं में आदान और विसर्ग काल के गुणों की संचित सामग्री कीमध्यापवस्था होने से प्राणियों में मध्य बल रहता है।

किस ऋतु में किस रस का सेवन अच्छा है ?

हेमन्त, शिशिर और वर्षा ऋतु में मधुर, अम्ल और लवण इन तीनोंशत का विशेष सेवन करना चाहिए। वसंत ऋतु में कटु, तिक्‍त और कषाय रसोंका सेवन विशेष लाभप्रद है। ग्रीष्म ऋतु में प्रायः तिक्‍त और कषाय रस का सेवनकरना चाहिए और निश्चित ऋतु में निश्चित अन्न विशेष का निम्न वर्णनानुसारशैधन करना चाहिए।

किस ऋतु में किन और कैसे पदार्थों का सेवन करना चाहिए और कब किनका परित्याग ?

शरद और वसंत में ऋतु में रूक्ष अन्नपान का सेवन करनाचाहिए। ग्रीष्म और शरद ऋतु में शीतल पदार्थों का सेवन करना चाहिए (शीतलक्रा अर्थ शीतल स्वभाव वाले से लें)। हेमन्त, शिशिर, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु मेंस्निग्ध पदार्थों का सेवन करें एवं हेमन्त, शिशिर, वर्षा और वसंत ऋतु में उष्णअन्नपान का सेवन करना चाहिए, इसके साथ ही सदा सब रसों का सेवन का भी आदेश है।

 “नित्यं सर्व रसाभ्यासः स्वस्वाधिक्य मृतावृतौ”

अर्थात्‌ प्रायः नित्य मधुर अम्ल, लवण, कटु, कषाय, तिक्त इन छहों रसों का सेवन करना चाहिए,परंतु जिस-जिस ऋतु में जिस-जिस आहार-विहार का विशेष सेवन करना विशेषहितकर कहा गया है उस-उसका विशेष प्रयोग करना चाहिए। इस विषय में ऊपरबताया जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव आदि का विचारकर दोष, धातुओं को साम्यावस्था में रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य की प्रकृति के विपरीत जैसे वात प्रधान को स्निग्ध, पित्त प्रधान को शीत और कफ प्रधान कोएष्ण पदार्थ सेवन करना हितकर है। इसी प्रकार देश, धातु आदि का विचार करसाम्याउवस्था उत्पन्न करने के लिए देश, काल और देह के अनुरूप आहार-विहारकी कल्पना करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त ऋतु संधि में निम्न वस्तुओं को सेवनकरना चाहिए ।

ऋतु-संधि क्या होती है ?

पहली ऋतु अंतिम और दूसरी ऋतु का प्रथम सप्ताह ऋतु-संधि कही जातीहै, जैसे-शिशिर ऋतु के अंत के 7 दिन और वसंत ऋतु के आदि के 7 दिन मिलाकर 4 दिन की कऋतु-संधि हुई। इसमें क्रमशः धीरे-धीरे शिशिर ऋतु की चर्या को त्याग, क्रमानुसार वसंत की ऋतुचर्या का अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि सहसा पहली ऋतु की चर्या को त्याग कर दूसरी ऋतु चर्या का अवलंबन करने से असात्य जनित रोग उत्पन्न हो जाते हैं, अतः ऋतु की संधि में पहले ऋतु की चर्या का क्रमशः त्याग, आने वाली ऋतु की चर्या का अभ्यास करना चाहिए। ।

आयुर्वेद के मतानुसार वायु, कफ और पित्त :

आयुर्वेद के मतानुसार वायु, कफ और पित्त ये तीन दोष रोग के कारण हैं । हमारे सभी सिद्धांत इन्हीं दोषों पर आधारित है। ऋतुचर्या के द्वारा महर्षियों ने हमें बताया है किस ऋतु में क्या खाना चाहिए क्या पहनना चाहिए और कब सोनाचाहिए । यदि हम इन स्वर्णिमसूत्रों को अपने जीवन में ढाल लें तो कोई कारण नहींकी भारत संतान अपने पूर्वजों के समान ही धीर-वीर-गंभीर न हो जाए। ऋतुचर्यामंजरी  में दोष और ऋतुओं के विषय में बड़ा सुंदर वर्णन उपलब्ध होता है।

आयुर्वेद में दोष क्‍या हैं वे क्यों और कब उत्पन्न होते हैं ?

शधिक व्यायाम, अति मैथुन, मिथ्याह्मर विहार का परित्याग करने से ये तीनों दोष साम्यावस्था में रहकर मनुष्य को परिपुष्ट करते हैं।

विसर्गकाल और उसकी जतुएँ स्वास्थ्य संपादन के लिए महत्वपूर्ण होती है। क्‍योंकि सूर्य का बल कम होकर चन्द्र का बल बढ़ता है।  विसर्गकाल मानव के लिए उत्तम है और सूर्य आदानकाल में लिए हुए स्नेह भाग को लौटा देता है। ध्यान देने योग्यहैं-आयुर्वेद मानव जीवन को पूर्ण स्वस्थ देखना चाहता है। स्वस्थ वह है जिसके वात, पित्त, और कफ तीनों दोष समानहों, पाचकाग्नि मंद विषम या अति न हो, शरीर में रस, रक्त आदि धातुएँ न कम हों न अधिक, मन वाणी आदि शारीरिक तथा मानसिक क्रियाएँ ठीक ठीक हों और आत्मा, इन्द्रियाँ और मन स्वस्थ हों, वही वास्तव में सच्चा सुखी है। इसके विपरीतजो सर्व साधन संपन्‍न होकर भी बनावटी आनंद पाने की इच्छा रखता है, वह मानस शास्त्र के अनुसार दुखी है। पाश्चात्य सभ्यता का सभी बातों में अनुकरणकरते हुए हम॑ यह भूल जाते हैं कि वे हमारे आयुर्वेदीय सिद्धांतों की कसौटी परसुखी सिद्ध नहीं होते। प्रायः विदेशों के अधिकांश व्यक्ति नींद की गोली लिए बिना सो भी नहीं सकते । तंबाकू, चाय, अफीम, शराब, कोकीन आदि मादक द्रव्योंने भी आधुनिक समाज को “अप्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः का प्रमाणपत्र दे दिया है। दुखभुलाने के लिए यद्यपि इनका सेवन किया जाता है, पर इससे मानव समाज की दशा चिंतनीय होती जा रही है।

आयुर्वेद में आहार, नींद और ब्रह्मचर्य का महत्व :

स्वास्थ्य और दोषों की साम्यावस्था तीन उपस्तम्भों पर आधारित है । ये उपस्तम्भ हैं : आहार, नींद और ब्रह्मचर्य-

त्रय उपस्तम्भा आहार स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति

इनके प्रति मानव को कभी लापरवाह नहीं होना चाहिए। इस विषय में प्रमाद स्वयं मृत्यु के आह्वान के समान है। इन तीनों उपस्तम्भों का संक्षिप्त ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। भोजन में वायु और जल का भी अंतर्भाव है इस विषय में पृथक्‌ पर्याप्त लिखा जा चुका है फिर भी ध्यान रखें-'क्षीर घृताभ्यासो रसायनानांश्रेष्ठतम्‌” दूध और घी का सेवन श्रेष्ठतम रसायन है। इन्हीं वस्तुओं से हमारे शरीरका विकास और पुष्टि होती है। साथ ही भोजन के संबंध में निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए। भोजन चबाकर धीरे-धीरे करें। भोजन पर भोजन न करें, पौष्टिक और सुपाच्यं भोजन करें। थकावट के बाद विश्राम करें और तब भोजन करें। जल भोजन के मध्य में या 1 घंटा पूर्व अथवा 5 घंटे बाद पीएँ, व्यायाम और प्रातः वायु का तैवन करें। भोजन के बाद तत्काल न सोएँ । अधिक चटपटी मसालेदार चीजें न खाएँ, चिंतारहित होकर समय पर सोएँ और उठें । चिंतातुर व्यक्ति सो भले ही ले पर निद्रा से लाभान्वित नहीं हो सकता। जो मनुष्य सदाचारी है, विषय भोग में निस्पृष्ठ है, संतोषी है उसे समय पर निद्रा अवश्यमेव आ जाती है। अनिद्रा से पीड़ित व्यक्तियों को आयुर्वेद कै इस मत पर ध्यान देना चाहिए। तीसरा उपस्तम्भ है ब्रह्मचर्य और वही वास्तवहैं मानव को देवोषम बनाने की योग्यता प्रदान करता है और आजकल की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए बिना बनावटी साधनों के संतति निरोध का अचूक उपाय है । इसके अतिरिक्त दीर्घायु आदि के लिए तथा अकाल मृत्यु से बचने का यही एकमात्र उपाय है। भारत जैसे देश में जहाँ आयु का परिमाण अति न्‍यून है और लोग निस्तेज से दीखते हैं । संयमविहीन जीवन से स्वास्थ्य की दशा का पर्यवेक्षण कर ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए ।

व्यायाम क्या है और इसका क्या महत्व है ?

महर्षि चरक ने इस विषय में बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है-

शरीर चेष्टा या चेष्टास्थैयार्था बलवर्धिनी।देह व्यायाम संख्याता मात्रया तां समाचरेत

अर्थात्‌ शरीर की जो चेष्टा देह को स्थिर रखने और उसका बल बढ़ाने वाली हो, उसे व्यायाम कहते हैं और उसका उचित मात्रा में सेवन करें। व्यायाम करने से शरीर की पुष्टि, कांति, मांसपेशियों के उभार आदि का ठीक विभाजन, तीव्र जठराग्नि, आलस्य हीनता, स्थिरता, हल्कापन, मलादि की शुद्धि और थकावट, सुस्ती, प्यास, गर्मी आदि सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है । व्यायाम करने वालों पर बुढ़ापा सहसा आक्रमण नहीं कर पाता । इसके अतिरिक्त निम्न का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए :

1. व्यायाम-निषेध-

रक्तपित्त का रोगी, कृश, शोथ, श्वास, खाँसी और उराक्षत से पीड़ित, तुरंत भोजन करने वाला, दुर्बल तथा चक्कर से पीड़ित मनुष्यको व्यायाम नहीं करना चाहिए।हे

2. स्नान-निषेध-

अफारा, अतिसार, ज्वर, अरुचि, अजीर्ण तथा भोजन के- बाद एवं अर्दित, नेत्र रोग, मुख रोग और जुकाम में भी स्नान का निषेध है।

3. निषिद्ध-भोजन-

अपवित्र, जूठा, तृणादियुक्त, मन को अप्रिय, बासी,अस्वादिष्ट और दुर्गधित अन्न का सेवन न करें। अंति चटपटा या नमकीन भोजन भी त्याज्य है। थकावट के बाद और व्यायाम के बाद भी भोजन न करें। खाने का अन्न कभी खुला न रखे इससे कीटाणुओं का प्रवेश हो रोगोत्पत्ति का भय रहता है ।

इस प्रकार आयुर्वेद में ऋतुचर्या का वर्णन इस दृष्टि से किया है जिससे मानव सचेष्ट रहकर आरोग्य रह सके। जो विषय स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयको प्रतिपादित करता हो उसका महत्त्व तो स्पष्ट है ही साथ ही ऋतुचर्या का भी हमारे लिए बहुत महत्व है। आज के चकाचौंध उत्पन्न करने वाले युग में जबकि मानव-तन रोगागार बनता चला जा रहा है। हमें चर्या पर विशेष ध्यान देते हुए अपना स्वास्थ्य और धन बचाकर देशोन्नति में योग देना चाहिए और वही कार्यकरना चाहिए जो यश का भागी बनाए और उत्तम स्वास्थ्य बनाए क्‍योंकि--

धीमता तदूनुष्ठेय॑ स्वास्थ्यं येनानु वर्तते”



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