आयुर्वेद या चिकित्सा की विभिन्न पद्धतितियों का वेद में विशेषकर अथर्ववेद में वर्णन मिलता है। सुश्रुतकार के मतानुसार आयुर्वेद अथर्ववेद का उपांग है।
: “इहखल्वायुर्वेदो नाम यदुपांगमथर्ववेदस्य 3अनुत्याद्येव प्रजा: कृतवान् स्वयंभू: ।”
यह उपवेद इस समय उपलब्ध नहीं, किंतुतु इतना निश्चित है कि इस उपवेद से ही आयुर्वेद तथा अन्य चिकित्सा प्रणालियाँ विविकसित हुईं। वेद के बीजभूत मंत्रों में सबसे पहले वैद्य के लक्षण बताए गए हैं--
यत्रौषधीः समग्मतत राजन: समिताविवेव।
विप्र: स उच्यते भिषग्रक्षोहह्मीव चातरनः ॥
अर्थात् वैद्य विद्वान सांगोपांग आयुर्वेद जानने वाला, औषधियों का संग्राहक होना चाहिए। इसी प्रकार शरीर विज्ञान के विषय में निम्न बातें बताई हैं।
यास्ते शर्तें धमनयोंकज्ञन्यनु विष्ध्ठिताः।
तासां ते सर्वासां निर्विधाणि हवयप्रामसि ॥
अर्थात् शरीर के प्रत्येक भाग में विभिन्न नाड़ियाँ हैं। इन नाड़ियों में विष का संचार होने से अनेक रोग होते हें। भाव है-स्ववस्थ रहने के लिए नाड़ियाँ निर्विष रखनी चाहिए अन्यथा निम्नलिखित रोग होने वका भय है-
अंगभेदोी अंगज्वरो यश्चवते हृदया मयः ।
यक्ष्मः श्येन इव प्रापपत वया साढः पररस्तराम ॥
अंग ज्वर, अंग टूटना, हृदय व्यथा, क्षय आदि। किंतु यदि नाड़ियाँ निर्विष हुईं तो ये रोग उसी प्रकार भाग जाएँगे जैसे श्येन पक्षी ।
इन व्याधियों के अतिरिक्त अन्य व्याधियों का भी उल्लेख मिलता है :
1. क्षेत्रिय व्याधि
पैत्रिक या सहज, यद्यपि यह असाध्य होती है तथापि अधर्ववेद में इसका भी उपचार मिलता है।
2. निऋृति
अनियमित आहार-विहार सेप्ते होने वाले रोग।
आयुर्वेदीय त्रिदोष तत्व भी इससे संबंधित है क्योंकि माधव निदान में बतलाया गया है-
मिथ्याहार विहारभ्यां दोषा ह्यामाशया श्रयाः।
बहिर्रिनिरस्य कोष्ठाग्नि ज्वरदास्युः रसानुगा ॥
मिथ्याहार विहार से दोष (वात, पित्त, कफ) कुपित होकर अमाशय में जाकर रस धातु को बिगाड़ कर पेट की आग को बाहर निकाल देते हैं, वही गर्मी शरीर को गर्म कर देती है। इसी को ज्वर कहते हैं।
3. आग
फैलने वाले रोग।
4. दुरितम्
सदोष पदाथों से उत्पन्न होने वाले रोग। वर्तमानकाल में जितनी भी चिकित्सा-पद्धतियाँ दृष्टिगोचर होती है। उनमें से
अधिकांश का वर्णन वेद में मिलता है। सर्वप्रथम आयुर्वेदांतर्गत प्राकृतिक चिकित्सा का वेद में निम्नलिखित रूप में वर्णन पाया जाता है-
प्राकृतिक चिकित्सा
1. सूर्य चिकित्सा-
विष के अतिरिक्त सूर्य किरणों द्वारा अनेक रोग दूर होते हैं। यंह चिकित्सा 'रश्मि-स्नान' नाम से प्रसिद्ध है।
2. वायु चिकित्सा
वायु चिकित्सा का मूल है। यह बलदायक तथा आयु वर्धक है तथा अपने साथ संपूर्ण औषधियाँ ले कर बहता है। ऋग्वेद में वायु के लिए “विश्व भेषजः' शब्द प्रयुक्त हुआ है। जिसका अर्थ है विश्व की , औषधि या सम्पूर्ण औषधि इससे वायु चिकित्सा की महत्ता पर काफी प्रभाव पड़ता है। साथ ही प्रातः भ्रमण के लाभ तथा तत्कालीन वायु का शरीर पर प्रभाव भी स्पष्ट हो जाता है।
3. जल चिकित्सा
ऋग्वेद में इसका वर्णन मिलता है, जैसे-
अप्सु में सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानी भेजषः।
अग्निच विश्व संभुव मापश्च विश्व भेषजीः ॥ ऋग- .-2-2
आपो हिष्ठा भयो भुगवस्तान ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे ॥ ऋग. 7-6.5
इन मंत्रों से ज्ञात होता है कि जल में संपूर्ण औषधियां वर्तमान हैं। अतः वे मेरे शरीर में गए हुए रोग बीजरूपी विष को बाहर ले आवें। “विश्व भेषजी” 'मयी भुवः', शिव तमो रस” आदि से विदित होता है कि जल चिकित्सा उस समय भी प्रचलित थी। उपरोक्त तीन मंत्र वाक्यों से तीन बातों का पता चलता है। जल में संपूर्ण औषधियां रहती हैं, वह हितकारी आरोग्य वर्धक और सुख कारक हैं। यह आरोग्य कारक कल्याणकारी अर्क है। जल तीव्रतम औषधि है। 'जलं व उग्रभेषजम्”! अतः आशु फलब्रद है।
आयुर्वेद और रोगजन्तु शास्त्र में कोरोना वाइरस जैसे कीटाणुओं का वर्णन :
आधुनिक एलोपैधिक को इसका श्रेय दिया जाता है कि उसमें ही सबसे पहले रोग के कीटाणुओं की खोज की गई। चिकित्सा में सरलता आई। वास्तव में बात इसके विपरीत है। बेद और उसके उपांगभूत आयुर्वेद में भी रोग के कीटाणुओं का वर्णन मिलता हैं। इतना थे हुए भी प्राचीन आचार्यों ने इन रोग कीटाणुओं के स्थान पर विशेष महत्त्व त्रिदोष की दिया है। इसका कारण स्पष्ट है कि वे लोग इस विषय की गहराई में जितने पहुँचे हैं उतने आधुनिक नहीं। सब जानते हैं-किसी वस्तु में सड़न उत्पन्न होने के पश्चात ही रोग के कीटाणु पैदा होते हैं जैसे हैजा आदि में।
इसी प्रकार आयुर्वेद में भी इनका वर्णन मिलता है पर दोष के पश्चात्, अतः त्रिदोष की महत्ता स्पष्टरूप से पिद्ध हो जाती है ! ऐलोपैथिक में रक्त को मुख्य माना जाता है किंतु आयुर्वेद में रत को क्योंकि रस से रक्त बनता है। मूल और मुख्य वस्तु को जान लेने के पश्चात गौण का विशेष महत्त्व नहीं रहता, इसी लिए रोग कीटों की चर्चा विशेष रूप से नहीं मिलती। फिर भी वेद में इस विषय का वर्णन पाया जाता है-“ये अन्नेषु विविध्यन्ति पात्रेषु पिवतो जनान्”। अर्थात् जो जन्तु जल या भोजन द्वारा शरीर में प्रविष्ट होकर रोग उत्पन्न करते हैं। आजकल यूरोपीय विद्वान भी इससे सहमत हैं। अंतड़िओं एवं पसलियों में जाकर रोग पैदा करने वाले कीटाणुओं के विषय में अथर्ववेद के 2.3.4 मंत्र में वर्गन मिलता हैं अथर्ववेद के 2.37.2 मंत्र में रोगोत्पादक कृमियों की छः जातियाँ बताई हैं। जो निम्न हैं-
- अवस्कव,
- व्यष्वर
- कुसरू
- अल्गुण्ड
- छलुन
- रूद्र ।
उनमें रुद्र विशेष भयानक है क्योंकि “रोदयन्तीतिरुद्रा”, यही प्लेग आदि संक्रामक रोग फैलाते हैं। इसके अतिरिक्त शर्व-प्राण घातक है, भीम-भयंकर, बलघ्न-उन्माद -आदि 20 प्रकार के कृमियों का वर्णन मिलता है। चिकित्सा संचालक वैद्य के लिए वेद में 'रक्षोहा' शब्द आया है, जिसका अर्थ है राक्षस-हंता। वैद्य जौषधियों द्वारा रोग जन्तुं का नाशक होने के कारण उक्त शब्द सार्थक है। राक्षस रेगजन्तु का भी वाचक है। ये कीट रजः कण से भी सूक्ष्म होते हैं।
यज्ञ- हवन. चिकित्सा
इसीलिए वेद में यज्ञ की कल्पना की गई है जिससे औषधि घूम के सहयोग से वायुमंडल में फैलकर सब कीटाणुओं को नष्ट कर दे। रोग जन्तु नाश के लिए वनस्पति प्रयोग भी बताया है-“वनस्पति सह देवैर्न आगत। रक्ष: पिशाचानपि बाधमानः”॥ अ- 2.3.5। अर्थात् दिव्य गुणयुक्त वनस्पति राक्षब (रोग कीटों) के नाश के लिए आ गई और “अजः खंग्येन रक्षः सर्वान् गन्धेन नशय”। अजशूंगी नामक वनस्पति अपनी गंध से रोग कीटों को नष्ट करे। रश्मि-स्नान का भाव भी ऐसे सूक्ष्म कीटों का नाश ही है। सुश्रुत, चरक पें स्थान-स्थान पर रक्षोघष्न औषधियों का वर्णन आता है।
उपरोक्त चिकित्सा पद्धतियों के अतिरिक्त वेद के “अपचितः प्रपतत”। मंत्र से सौर चिकित्सा तथा
“अनुसूर्यमुदयतां हृद हरिमाच ते। गोरोहितस्य वर्णेन तेनत्वा परिध्ममसि” ॥
मंत्र में पाण्डु गेग तथा हृदय रोग की चिकित्सा का वर्णन है। बताया गया है कि पाण्डु रोग में खुले शरीर सूर्योदय के समय उनके प्रकाश में बैठना तथा हृदय रोग में लाल गाय का दूध पीना बहुत लाभदायक है।
शल्य चिकित्सा
“यदंत्रेषु” आदि मंत्र में शलाका मूत्राशय में शिश्न द्वारा प्रवेशकर मूत्र-दोष निवारण की विधि का वर्णन मिलता है। इस विषय को शल्य चिकित्सा के अंतर्गत लिया जा सकता है। उपरोक्त विवेचन के आधार पर निष्पक्ष रूप से कहा जा सकता है कि विश्व में प्रचलित समस्त चिकित्सा-पद्धतियों का आदि स्त्रोत वेद है।