कुंडलिनी महाशक्ति की सम्पूर्ण सामर्थ्य || Everything about Kundalini Shakti ||

  

मानव शरीर का सामर्थ्य 

आत्मविद्या के विद्यार्थियों को यह तो विदित ही रहता है कि यह मानवीय पिंड (शरीर) विश्व-ब्रह्मांड का एक छोटा-सा नमूना मात्र है | सूर्य चलता है और सौरमंडल के ग्रह-उपग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। ठीक इसी प्रकार परमाणु भी अकेला नहीं होता, उसके साथ इलेक्ट्रान, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि कौ एक मंडली रहती है जो 'न्यूक्लियस' से प्रभावित होकर अपना कार्य उसी तरह चलाती है जिस तरह सौरमंडल के साथ सूर्य। विशाल वृक्ष का सारा ढाँचा छोटे-से बीज के भीतर पूरी तरह विद्यमान रहता है। 


मनुष्य का शरीर ही नहीं उसका स्वभाव, बुद्धि, अंतःकरण आदि महत्त्वपूर्ण सूक्ष्म चेतना संस्थान भी अति सूक्ष्म रज-वीर्य में पूरी तरह जीन्स रूप से विद्यमान रहता है। ब्रह्मांड कौ विशाल व्यापकता को यदि हम बीज रूप में देखना चाहें, तो उसे मानव शरीर की सूक्ष्मता का विश्लेषण करते हुए भली प्रकार जान सकते हैं। जान ही नहीं सकते उस व्यक्तिगत सूक्ष्मता का विश्व गरिमा के साथ जुड़े हुए अविच्छिन्न संबंध का लाभ भी उठा सकते हैं। यह संबंध सूत्र यदि प्रसुप्त न रहकर जाग्रत हो जाए, दुर्बल न रहकर परिपक्व हो जाए, तो विश्वव्यापी शक्ति-भंडार से अपने लिए आवश्यक वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध- आकर्षित कर सकता है। इतना ही नहीं, अपनी दुर्बल इकाई को समर्थ बनाकर उससे विराट्‌ विश्व के जड़-चेतना संस्थान को प्रभावित कर सकता है।
मानव शरीर का सामर्थ्य


क्या कुंडलिनी महाशक्ति कल्पना है ?

साधना और तपश्चर्या वस्तुत: इसी अति महत्त्वपूर्ण विज्ञान का नाम है। प्राचीन काल में तप-साधना के द्वारा जिनने जो वरदान पाए थे, उनके इतिहास, पुराण विस्तारपूर्वक हम पढ़ते-सुनते हैं। इन दिनों वैसी उपलब्धियाँ प्रत्यक्ष न होने से वे बातें कपोल-कल्पना जैसी लगती हैं, पर वस्तुत: बात ऐसी नहीं है। यदि ठीक विधि से, ठीक उपकरणों द्वारा उस विज्ञान को कार्यान्वित किया जाए तो पूर्वकाल की कपोल-कल्पना समझी जाने वाली बातों को आज भी प्रत्यक्ष किया जाना संभव है।

क्या कुंडलिनी महाशक्ति कल्पना है ?


कुंडलिनी शक्ति क्या है ?

तपस्वियों द्वारा साधना के फलस्वरूप प्राप्त किए वरदान और कुछ नहीं, विराट्‌ विश्व की अंतरंग शक्तियों में से कुछ का इच्छानुकूल उपयोग कर सकने की क्षमता ही समझी जानी चाहिए। इसी प्रकार शाप-वरदान दे सकने की क्षमता को अपनी व्यक्तिगत इकाई को इतना प्रबल बना लेना चाहिए, जिससे मनुष्यों या पदार्थों को अपनी संकल्प शक्ति के प्रहार से अभीष्ट दिशा में मुड़ने के लिए विवश किया जा सके। देवताओं का अस्तित्व इस विराट्‌ विश्व में उनकी विशालता के अनुरूप व्यापक भी हो सकता है ? पर हमसे देवताओं के जिस अंश का प्रत्यक्ष और सीधा संबंध है, वह अंश अपने भीतर ही 'शक्तिबीजों' के रूप में विद्यमान रहता है। साधना का प्रयोजन इन्हीं शक्तिबीजों को जाग्रत और समर्थ बनाना है । 

कुंडलिनी शक्ति क्या है ?

समष्टिगत देवताओं का आशीर्वाद, वायु, वर्षा, धूप, शीत, दुर्भिक्ष, सुभिक्ष आदि के रूप में समग्र रूप से बरसता है और उससे सबको समान लाभ मिलता है। व्यक्तिगत वरदान आशीर्वाद देने वाले देवता अपने शरीर में ही विद्यमान रहते हैं। विविध-विध साधनाओं द्वारा उन्हीं को स्वयं समर्थ बनाया जाता है और अपनी पात्रता एवं तपस्या के अनुरूप उन्हीं से वह लाभ पाया जाता है, जिसे 'अलौकिक' चमत्कारी, देवप्रदत्त, वरदान के रूप में आश्चर्य के साथ सुना और देखा जाता है।

कुंडलिनी शक्ति क्या है ?


कुंडलिनी शक्ति का प्रभाव 

इस अलौकिक और अद्भुत चमत्कार प्रस्तुत करने वाली शक्ति को ही योगियों और तपस्वियों ने कुंडलिनी नाम दिया है और उसे जीवन चेतना का आधार बताया है । उसी से जीवधारियों को शक्ति और तेजस्विता मिलती है, सामान्य स्थिति में व्यक्ति कौ कुंडलिनी शक्ति जितनी मात्रा में स्पंदन करती है, उतना ही प्रभाव- क्षेत्र, उस मनुष्य का होता है । उसी के आधार और अनुपात से लोगों को सुख-दुःख, आदर-सम्मान, लोक-प्रतिष्ठा आदि मिलती है । इसलिए कहना न होगा कि मनुष्य के स्थूल जीवन की नहीं, व्यावहारिक जीवन की सफलता और समुन्नति का आधार भी कुंडलिनी शक्ति ही है।

कुंडलिनी शक्ति का प्रभाव


कुंडलिनी द्वारा इंद्रियों को वश करना 

पाँचों प्रकार की ज्ञानेंद्रियाँ भी बिजली के तारों की तरह इसी परमशक्ति से जुड़ गईं हैं, इसलिए वह सूक्ष्म चेतना होने पर भी संकल्प रूप में आ गई है। चेतन होने के कारण चिति, जीने से जीव, मनन करने से मन और बोध प्राप्त करने से चेतना को बुद्धि रूप में देखा जाता है। अहंकार रूप में उसे ही चतुष्टक कहते हैं, पर इन विभिन्‍न नामों का एक ही आधार है--चेतना | इस चेतना की, शक्तियों की मूलाधार शक्ति को ही कुंडलिनी कहा जाता है। ज्ञान और अनुभव के पाँचों कोश बीज रूप से इसी में पाए जाते हैं, इसलिए कुंडलिनी शक्ति जाग्रत कर लेने वाला इंद्रियों को उसी तरह वश में कर लेता है, जिस तरह लगाम लगे हुए घोड़ों को वश में कर लिया जाता है। जिसने इंद्रियों को जीत लिया, संसार में उसको किसका भय ? जो निर्भय हो गया वही विश्व-विजेता हो गया।

कुंडलिनी द्वारा इंद्रियों को वश करना



कुंडलिनी योग का महत्व 

कुंडलिनी की इन्हीं महान सामर्थ्यों को जानकर ही योगशास्त्रों में उसे सर्वाधिक महत्त्व दिया गया। इसके साथ अनेक प्रकार की कल्पनाएँ जोड़ दी गई हैं। अनेक प्रकार से उसका वर्णन किया जाता है। सीधे, सरल शब्दों में कुंडलिनी वह दिव्य मानस तेज है, जो आत्मचेतना से परिसिक्त है और शरीर भर में व्याप्त है। साधना के फलस्वरूप यह तेज सिमटकर ध्यान के समय ज्योति बनकर देह में कार्य करने लगता है।

कुंडलिनी योग का महत्व


प्राणायाम द्वारा कुंडलिनी जागरण 

कुंडलिनी शक्ति को और अच्छी तरह समझने के लिए श्वास-क्रिया और सुषुम्ना शीर्षक (मेडुला ऑब्लॉगेटा) का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। पाश्चात्य वैज्ञानिक अभी तक इतना ही जान पाए हैं कि नाक से ली हुई साँस गले से होती हुई फुफ्फुसों (फेफड़ों) तक पहुँचती है। फेफड़ों के छिद्रों में भरे हुए रक्त को वायु शुद्ध कर देती है और रक्त-परिसंचालन की गतिविधि शरीर में चलती रहती है। किंतु प्राणायाम द्वारा श्वास-क्रिया को बंद करके भारतीय योगियों ने यह सिद्ध कर दिया है कि चेतना जिस प्राणतत्त्वत को धारण किए हुए जीवित है, उसके लिए श्वास-क्रिया आवश्यक नहीं। साँस ली हुई हवा का स्थूल भाग ही रक्तशुद्धि का काम करता है। उसका सूक्ष्म भाग सुषुम्ना शीर्षक में अवस्थित इड़ा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से नाभि-कंद स्थित चेतना को उद्दीप्त किए रहता है।' गोरक्ष-पद्धति' में श्लोक ४८ से इस क्रिया को शक्तिचालन महामुद्रा, नाड़ी-शोधन आदि नाम दिए हैं और लिखा है कि सामान्य अवस्था में इड़ा और पिंगला नाड़ियों का शरीर की जिस ग्रंथि या इंद्रिय से संबंध होता है, मनुष्य उसी प्रकार के विचारों से प्रभावित होता रहता है।

प्राणायाम द्वारा कुंडलिनी जागरण


इस अवस्था में नाड़ियों के स्वत: संचालन का अपना कोई क्रम नहीं होता। किंतु जब विशेष रूप (प्राणायाम) से प्राणबायु को धौंका जाता है तो इड़ा (गर्म नाड़ी) और पिंगला (ठंढी नाड़ी) सम-स्वर में प्रवाहित होने लगती हैं। इस अवस्था के विकास के साथ-साथ नाभि-कंद में प्रकाश स्वरूप गोला भी विकसित होने लगता है। उससे प्राण शक्ति विद्युतशक्ति के समान निःसृत होती है, चूँकि सभी नाड़ियाँ इसी भाग से निकलती हैं इसलिए वह इस ज्योति गोले के संस्पर्श में होती हैं । सभी नाड़ियों में वह विश्वव्यापी शक्ति झरने से सारे शरीर में वह तेज 'ओजस्‌' के रूप में प्रकट होने लगता है। इंद्रियों में वही बल के रूप में, नेत्रों में चमक के रूप में परिलक्षित होता है। इस प्राण शक्ति के कारण प्रबल आकर्षण शक्ति पैदा होती है।

कुंडलिनी शक्ति द्वारा तेजस्वी व्यक्तित्व 

यह शक्ति नाभि प्रदेश में प्रस्फुटित होती है और चूँकि कटि प्रदेश भी उसी के समीप है, इसलिए वह भाग अधिक शीघ्र और तेजी से प्रभावित होता है। इसलिए यौन शक्तिकेंद्रों को नियंत्रण में रखना अधिक आवश्यक होता है। साधना की अवधि में संयम पर इसीलिए अधिक जोर दिया जाता है, जिससे कुंडलिनी शक्ति का फैलाव ऊर्ध्वगामी हो जाए, उसी से ओज की वृद्धि होती है। स्थूल रूप से शरीर के स्नायुमंडल को ही पाश्चात्य वैज्ञानिक देख पाए हैं, वे अभी तक नाड़ियों के भीतर बहने और गतिविधियों को मूल रूप से प्रभावित करने वाले प्राण-प्रवाह को नहीं जान सके। स्थूल नेत्रों से उसे देखा जाना संभव भी नहीं है। उसे भारतीय योगियों ने चेतना के अति सूक्ष्म स्तर का वेधन करके देखा। 

कुंडलिनी शक्ति द्वारा तेजस्वी व्यक्तित्व


सुषुम्ना नाड़ी की शक्ति 

योग शिखोपनिषद में १०१ नाड़ियों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने सुषुम्ना शीर्षक को पर-नाड़ी बताया है। यह कोई नाड़ी नहीं है, वरन इड़ा और पिंगला के समान विद्युत-प्रवाह से उत्पन्न हुई एक तीसरी धारा है जिसका स्थूल रूप से अस्तित्व नहीं भी है और सूक्ष्म रूप से इतना व्यापक एवं विशाल है कि जीव की चेतना जब उसमें से होकर भ्रमण करती है तो ऐसा लगता है कि वह किसी आकाश गंगा में प्रवाहित हो रहा हो। वहाँ से विशाल ब्रह्मांड की झाँकी होती है। अंतरिक्ष में अवस्थित अगणित सूर्य, चंद्रमा, ग्रह-नक्षत्र की स्थिति समझने और विश्वव्यापी हलचलों को नाद रूप में सुनने-समझने का अलभ्य अवसर, जो किसी चंद्रयान या राकेट के द्वारा भी संभव नहीं है, इसी शरीर में मिलता है। उस स्थिति का वर्णन किया जाए तो प्रतीत होगा कि कुछ स्थूल और सूक्ष्म इस संसार में विद्यमान है, उस सबके साथ संबंध मिला लेने और उनका लाभ उपलब्ध करने की क्षमता उस महान आत्मतेज में विद्यमान है, जो कुंडलिनी के भीतर बीज रूप में मौजूद है।

सुषुम्ना नाड़ी की शक्ति


कुंडलिनी योग द्वारा अतुलनीय सुख की प्राप्ति 

सुषुम्ना नाड़ी (स्पाइनल कार्ड) मेरुदंड में प्रवाहित होती है और ऊपर मस्तिष्क के चौथे खोखले भाग (फोर्थवेंट्रिकल) में जाकर सहस्रारचक्र में उसी तरह प्रविष्ट हो जाती है, जिस तरह कि तालाब के पानी में से निकलती हुई कमल नाल से शत-दल कमल विकसित हो उठता है। सहस्नारचक्र ब्रह्मांड लोक का प्रतिनिधि है, वहाँ ब्रह्म की संपूर्ण विभूति बीज रूप से विद्यमान है और कुंडलिनी कौ ज्वाला वहीं जाकर अंतिम रूप से जा ठहरती है, उस स्थिति में निरंतर मधुपान का-सा, संभोग की तरह का सुख (जिसका कभी अंत नहीं होता ) अनुभव होता है, उसी कारण कुंडलिनी शक्ति से ब्रह्मप्राप्ति होना बताया जाता है।

कुंडलिनी योग द्वारा अतुलनीय सुख की प्राप्ति


कुंडलिनी जागरण द्वारा दिव्य ज्ञान

कुंडलिनी का महत्त्व इसी शरीर में परिपूर्ण शक्ति और सामर्थ्य का स्वामी बनकर आत्मा की अनुभूति और ईश्वर दर्शन प्राप्त करने से निस्संदेह बहुत अधिक बढ़ जाता है। पृथ्वी का आधार जिस प्रकाश शेष भगवान को मानते हैं, उसी प्रकार कुंडलिनी का शक्ति पर ही प्राणिमात्र का जीवन अस्तित्व टिका हुआ है। सर्प के आकार की वह महाशक्ति ऊपर जिस प्रकार मस्तिष्क में अवस्थित शून्य-चक्र से मिलती है, उसी प्रकार नीचे वह यौन स्थान में विद्यमान कुंडलिनी के ऊपर टिकी रहती है। प्राण और अपान वायु के धौंकने से वह धीरे-धीरे मोटी, सीधी, सशक्त और परिपुष्ट होने लगती है। साधना की प्रारंभिक अवस्था में यह क्रिया धीरे-धीरे होती है, किंतु साक्षात्कार या सिद्धि की अवस्था में वह सीधी ही जाती है और सुषुम्ना का द्वार खुल जाने से शक्ति का स्फुरण वेग से फूटकर सारे शरीर में, विशेष रूप से मुखाकृति में फूट पड़ता है। कुंडलिनी जागरण दिव्य ज्ञान, दिव्य अनुभूति और अलौकिक मुख का सरोवर इसी शरीर में मिल जाता है।

कुंडलिनी जागरण द्वारा दिव्य ज्ञान



सुषुम्ना नाड़ी का छिद्र खुलने पर क्या होता है ?

सुषुम्ना नाड़ी का रुका हुआ छिद्र जब खुल जाता है, तो साधक को एक प्रकार का अत्यंत मधुर नाद सुनाई देने लगता है। यह ध्वनि प्रारंभ में मेघ के गर्जन, वर्षा समुद्र की हहराहट, घंटा, झाँस, वीणा और भ्रमर-गुंजार के तुल्य विकसित होती है, यही बाद में अनहद नाद में परिणत हो जाता है। नाभि से ४ अंगुल ऊपर यह आवाज सुनाई देती है, उसे सुनकर चित्त उसी प्रकार मोहित होता है जिस प्रकार वेणुनाद सुनकर सर्प सब कुछ भूल जाता है। अनहद नाद से साधक के मन पर चढ़े हुए जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कार छूट जाते हैं।

सुषुम्ना नाड़ी का छिद्र खुलने पर क्या होता है ?

कुंडलिनी महाशक्ति को तंत्र शास्त्रों में द्विमुखी सर्पिणी कहा गया है। उसका एक मुख मल-मूत्र इंद्रियों के मध्य मूलाधारचक्र में है। दूसरा मुख मस्तिष्क के मध्य ब्रह्रंध्र में। पृथ्वी के उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों में सन्निहित महान शक्तियों का परस्पर आदान-प्रदाननिरंतर होता रहता है, इसी से इस पृथ्वी का सारा क्रिया-कलाप यथाक्रम चल रहा है। इसी प्रकार कुंडलिनी शक्ति के ऊपर और नीचे के जननेंद्रिय और मस्तिष्क के अधःऊर्ध्व केंद्रों की शक्तियों का निरंतर आदान-प्रदान होता रहता है । यह संचार क्रिया मेरुदंड के माध्यम से होती है। रीढ़ की हड्डी इन दोनों केंद्रों को परस्पर मिलाने का काम करती है। वस्तुत: स्थूल कुंडलिनी का महासर्पिणी स्वरूप मूलाधार से लेकर मेरुदंड समेत ब्रह्मरंध्र तक फैले हुए सर्पाकृत कलेबर में ही पूरी तरह देखी जा सकती है। ऊपर-नीचे मुड़े हुए दो महान शक्तिशाली केंद्र चक्र ही उसके आगे-पीछे वाले दो मुख हैं।

सुषुम्ना नाड़ी का छिद्र खुलने पर क्या होता है ?


इड़ा और पिंगला क्या है ?

मेरुदंड पोला है, उसके भीतर जो कुछ है, उसकी चर्चा शरीरशास्त्र के स्थूल प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर दूसरे ढंग से की जा सकती है। शल्य क्रिया में जो देखा जा सकता है, वह रचनाक्रम दूसरा है। हमें सूक्ष्म प्रक्रिया के अंतर्गत योगशास्त्र की दृष्टि से इस परिधि में सनिहित दिव्य शक्तियों को चर्चा करनी है। योगशास्त्र के अनुसार मेरुदंड में एक ब्रह्म नाड़ी है और उसके अंतर्गत इड़ा और पिंगला दो शिराएँ गतिशील हैं । ये नाड़ियाँ रक्तवाहिनी शिराएँ नहीं समझी जानी चाहिए। वस्तुतः ये विद्युत धाराएँ हैं। जैसे बिजली के तार में ऊपर एक रबड़ का खोल चढ़ा होता है और उसके भीतर जस्ते तथा ताँबे का ठंढा-गरम तार रहता है, उसी प्रकार इन नाड़ियों को समझा जाना चाहिए। ब्रह्म नाड़ी रबड़ का खोल हुआ, उसके भीतर इड़ा और पिंगला ठंढे-गरम तारों की तरह हैं | इनका स्थूल कलेवर या अस्तित्व नहीं है। शल्य-क्रिया द्वारा ये नाड़ियाँ नहीं देखी जा सकतीं। इस रचनाक्रम को सूक्ष्म विद्युत धाराओं कौ दिव्य रचना ही कहना चाहिए।

इड़ा और पिंगला क्या है ?


क्या इड़ा और पिंगला को आँखों से देखा जा सकता है ?

मस्तिष्क के भीतरी भाग में यों कतिपय *कोष्ठकों' के अंतर्गत भरा हुआ मज्जा भाग ही देखने को मिलेगा। खुर्दबीन से और कुछ देखा नहीं जा सकता, पर सभी जानते हैं, उस दिव्य संस्थान के नगण्य से दीखने वाले घटकों के अंतर्गत विलक्षण शक्ति याँ भरी पड़ी हैं। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, सारा चिंतन, सारा क्रिया-कलाप और सारा शारीरिक, मानसिक अस्तित्व इन घटकों के ऊपर ही अवलंबित रहता है। देखने में सभी का मस्तिष्क लगभग एक जैसा दीखेगा, पर उसकी सूक्ष्म स्थिति में पृथ्वी-आकाश जैसा अंतर दीखता है, उसके आधार पर व्यक्तित्वों का घटिया-बढ़िया होना सहज ही आँका जा सकता है। यही सूक्ष्मता कुंडलिनी के संबंध में व्यक्त की जा सकती है। मूलाधार, सहस्नार, ब्रह्म नाड़ी, इड़ा, पिंगला को शल्य-क्रिया द्वारा नहीं देखा जा सकता। यह सारी दिव्य रचना ऐसी सूक्ष्म है, जो देखी तो नहीं जा सकती, पर उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।

क्या इड़ा और पिंगला को आँखों से देखा जा सकता है ?


मूलाधार चक्र क्या है ?

मूलाधार में अवस्थित कुंडली महाशक्ति मलद्वार और जननेंद्रिय के बीच लगभग चार अंगुल खाली जगह में विद्यमान बताई जाती है। योगशास्त्र के अनुसार इस स्थान पर वहीं गह्नर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता है। यों सारे शरीर में स्थित कण गोल बताए जाते हैं। यही एक तिकोना कण है। यहाँ एक प्रकार का शक्ति-भँवर है। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों से संचारित बिजली कौ गति का क्रम यह है कि वह आगे बढ़ती है फिर तनिक पीछे हटती है और उसी क्रम से आगे बढ़ती और पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती चली जाती है। किंतु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति-भँवर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह घुमती हुई संचारित होती है। यह संयम क्रम प्राय: 3 लपेटों का है। आगे चलकर यह विद्युत धारा इस विलक्षण गति को छोड़कर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगती है।

मूलाधार चक्र क्या है ?


सहस्रार चक्र का वर्णन

यह प्रवाह निरंतर मेरुदंड में होकर मस्तिष्क के उस मध्यबिंदु तक दौड़ता रहता है, जिसे ब्रह्मरंध या सहस्नार कमल कहते हैं। इस शक्तिकेंद्र का मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्‍न रचना का है। वह गोल न होकर चपटा है। उसके किनारे चिकने न होकर खुरदरे हैं--आरी के दाँतों से उस खुरदरेपन की तुलना की जा सकती है। योगियों का कहना है कि उन दाँतों की संख्या एक हजार है। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल-पुष्प की तरह चित्रित किया जाता है, जिसमें हजार पंखुड़ियाँ खिली हुई हों। इस अलंकार के आधार पर ही इस अणु का नामकरण 'सहस्नार कमल' किया गया है।

सहस्रार चक्र का वर्णन



सहस्रार चक्र क्या है ?

सहस्नार कमल का पौराणिक वर्णन बहुत ही मनोरम एवं सारगर्भित है। कहा गया है कि क्षीरसागर में विष्णु भगवान सहस्र फन वाले शेषनाग पर शयन कर रहे हैं। उनके हाथ में शंख, चक्र, गदा, पद्म है। लक्ष्मी उनके पैर दबाती हैं। कुछ पार्षद उनके पास खड़े हैं। क्षीरसागर मस्तिष्क में भरा हुआ, भूरा-चिकना पदार्थ ग्रेमेटर है। हजार फन वाला सर्प यह चपटा खुरदुरा ब्रह्मरंध्र स्थित विशेष परमाणु है। मनुष्य शरीर में अवस्थित ब्रह्मसत्ता का केंद्र यही है। इसी से यहाँ विष्णु भगवान का निवास बताया गया है | यहाँ विष्णु सोते रहते हैं। अर्थात सर्वसाधारण में होता तो ईश्वर का अंश समान रूप से है, पर वह जाग्रत स्थिति में नहीं देखा जाता। 

सहस्रार चक्र क्या है ?


आमतौर से लोग घृणित, हेय, पशु-प्रवृत्तियों जैसा निम्न स्तर का जीवनयापन करते हैं। उसे देखते हुए लगता है कि इनके भीतर या तो ईश्वर है ही नहीं अथवा यदि है, तो वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा है। जिसका ईश्वर जाग्रत होगा उसकी विचारणा, क्रियाशीलता, आकांक्षा एवं स्थिति उत्कृष्ट स्तर की दिखाई देगी। वह प्रबुद्ध और प्रकाशवान जीवन जी रहा है, अपने प्रकाश से स्वयं ही प्रकाशवान न हो रहा होगा, वरन दूसरों को भी मार्गदर्शन कर सकने में समर्थ हो रहा होगा। मानव तत्त्व की विभूतियाँ जिसमें परिलक्षित न हो रही हैं, जो शोक-संताप, दैन्य-दारिद्र और चिंता-निराशा का नारकीय जीवन जी रहा हो, उसके बारे में यह कैसे कहा जाए कि उसमें भगवान विराजमान हैं ? फिर यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि उसमें ईश्वर नहीं है। हर जीव ईश्वर का अंश है और उसके भीतर ब्रह्मसत्ता का अस्तित्व विद्यमान भी है।

सहस्रार चक्र क्या है ?


इस विसंगति को संगति मिलाने के लिए यही कहा जा सकता है कि उसमें भगवान है तो, पर सोया पड़ा है। क्षीर जैसी उज्ज्वल विचारणाओं के सागर में भगवान निवास करते हैं। क्षीरसागर ही उनका लोक है | जिस मस्तिष्क में क्षीर जैसी धवल, स्वच्छ, उज्ज्वल प्रवृत्तियाँ, मनोवृत्तियाँ भरी पड़ी हों, समझना चाहिए कि उसका अंतरंग क्षीरसागर है और उसे भगवान का लोक ही माना जाएगा। 

सहस्रार चक्र क्या है ?


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